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तुम कब बाहर घर से

निकलूं कब बाहर मैं घर से
हरदम बैठा रहता मौसम के डर से
एक साल में बारह महीने
चार महीने गिरे पसीने
फिर सोचूं मैं निकलूं बनके
तब होती बरसात जमके
आठ महीने यूं ही गुजरे
फिर आए जाड़े की करवट
बाहर निकले कांपे थरथर
तुम ही बताओ बारह महीने
ऐसे ही मौसम के डर से
निकलूं कब बाहर में घर से।
वीरेंद्र सेन प्रयागराज

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