दहकती आग थी

दहकती आग थी कुछ चिंगारियां थी
ये तो बस अपनों की ही रुसवाईयाँ थी

जो कभी पैरहन से लिपटे मेरे चारसू
अब वो न उनकी साथ परछाइयाँ थी

राजेश’अरमान’

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Responses

  1. बहुत खूब मित्र। ये दस्तखत ही दास्ताने–जिन्दगी है।
    आदमी आग हो हरदम , ये मुमकिन तो नहीं ।
    “रा…ख” के साये में ‘अं…गा…रे’ छुपे होते हैं ।।
    हर इक शख्स नहीं याद के काबिल “अनुपम” ।
    चन्द होते हैं : मसीहा , जो सलीब ढोते हैं ।।
    : अनुपम त्रिपाठी

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