परिंदा
सोये हुए मेरे अरमानों को उठाने आया था कोई,
कल रात मुझको चुपके से जगाने आया था कोई,
के एक उम्र बीत गई थी अँधेरी चार दिवारी में मेरी,
खुले आसमाँ में मुझको सैर कराने आया था कोई,
हार कर यूँही छोड़ दिए थे जब हाथ पैर अपने मैंने,
तब परिंदे सा हौसलों के पंख लगाने आया था कोई॥
राही अंजाना
Bahut khoob bhai
Ur ideas force us to read ur poems… Too good
Good one
Wah