पहचान

जात-पात के बन्धन में एक पुतला बनकर इतराता है,

क्यों छोटी छोटी बातों पर ही तू अपनों को ठुकराता है,

एक माँ की सन्तान है पर क्यों अलग-थलग मंडराता है,

अपने ही घर में तू कैसे अपनों को हाथ लगाता है,

नारी जाति सम्मान ही क्यों पैरों से कुचला जाता है,

रिश्तों के चिथड़े अखबारों में क्यों खुले आम छपवाता है,

संस्कारों की प्रकृति विशेष का क्यों दम भरकर दिखलाता है,

जब अपनी ही प्रवर्ति से तू अपनी पहचान बनाता है,

जब नग्न यहाँ कोई आता है और नग्न यहाँ से जाता है,

फिर क्यों अपनी माँ के माथे पर अपमान का तिलक लगाता है।।
राही (अंजाना)

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