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बढ़ता ही जा रहा

क्यूँ बारम्बार किया जाता महिलाओं के साथ घृणित अपराध,
कयी तरह की वेदना-संताप से गुजरती,जिनसे होता
बलात्कार ।
हर कानून बौना सावित, हर जायज कोशिश जा रही बेकार,
थमता दिखता नहीं, दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा
दुराचार ।।
बेटियाँ परिवार पे बोझ नहीं समझी जाती हैं जब
हर सुख-सुविधा, समानता, शिक्षा मुहैया है अब
पर विडम्बना है यह, क्या आई है ईश्वर से वह माँगकर
कभी बस में, कभी ट्रेन में, कभी स्कुटी से खींचकर
लुटते अस्मत, दरिन्दगी दे रही नैतिकता को ललकार ,
थमता दिखता नहीं, दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा
दुराचार ।।
आज मातम नहीं, हर्षोल्लास होता इनके जन्म पर
पर पल्लवित होते देख इन्हें, मन क्यूँ जाता है हहर
समानता के इस दौर में, कैसे घर पे रखू मैं रोककर
आतंकित रहते हर माँ-बाप, रहते बेबस और लाचार ,
थमता दिखता नहीं, दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा
दुराचार ।।
बेटियाँ माँ की होती हैं, हरदम सबसे अच्छी सहेली
पिता की लाडली, हरेक का ख्याल रखती हैं अलबेली
उसकी हिफाज़त का जिम्मा, बन बैठा अबुझ पहेली
शिक्षित करने की ही नहीं, है सशक्त करने की दरकार ,
थमता दिखता नहीं, दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा
दुराचार ।
महिलाओं के अधिकारों की लङाई लङ रहे हैं हम
संसद तक में भी आरक्षण की मांग कर रहे हैं हम
चलते-फिरते बहसी मनोरोगियों का क्या करें हम
आतंक के ठौर में लैंगिक समानता का स्वप्न कैसे ले आकार,
थमता दिखता नहीं, दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा
दुराचार ।।
बेटियों पे लगाते आए, हमेशा कयी तरह की पाबंदियां
थोड़ी-सी अपने बेटे के प्रति भी निभाले जिम्मेदारियां
पीङिता के दर्द का, उन्ही में से क़ोई होता गुनाहगार
ताकि हंसती-खेलती परियां न हो दरिन्दगी का शिकार,
हाँ, किसी भी बेटी से न हो हिंसा, ना हो कभी कहीं
दुराचार ।।

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