बन्द आँखों से कुछ भी दिखाई नहीं देता
कहो कोई तो कि आज फिर से शाम हो जायें,
मजबूर हूँ बन्द आँखों से कुछ भी दिखायी नहीं देता,
मैं सन्नाटे में क्यों कर बोलता रहता,
मेरे अल्फ़ाजों को भी क्या कोई गवाही नहीं देता,
कब्ज़ा हो गया लगता इबादतगाह पर फिर से,
तभी हर फरियाद पर कोई सलामी नहीं देता,
अल्फाजों सा बरसोंगें या अब्रों सा थमोगें तुम,
छतरी ले ही लेता हूँ कि मेरी जान का कोई दिखायी नहीं देता,
रफ़्ता रफ़्ता चलो कि शहर अन्जान हैं ,
कौन शागिर्द है कौन जाबिर यहाँ मिलते ही हर कोई दुहाई नहीं देता,
चश्म-ए-तर हैं सभी अंजुमन में यहाँ ,
ज़रा गौर से देखो सब यूँ ही हँसी चेहरों से तो जताई नहीं देता ,
nice 🙂
Thanks a lot
धन्यवाद
laazbaab janaab
शुक्रिया हुज़ूर
pretty poem
Thank u
रफ्ता रफ्ता चलो शहर अनजान है ……
Thank u
nice sir
धन्यवाद श्रीमान
वाह जी वाह क्या बात है