” बुढ़ापे का अकेलापन ”
बहुत ही मुसीबतों के दौर से गुजरा है,ये जीवन
पर किसे समझाऊं ? कैसे समझाऊं? और क्यो समझाऊं! जब कोई समझता ही नहीं है।
अपनों के दुख से; दर्द होता है ,बेहद
पर किसे बताऊं ? कैसे बताऊं? और क्यों बताऊं!
जब कोई साथ में, बतलाता ही नहीं है।
स्वार्थ की भुजाएं ,अब बहुत लम्बी हो गई,
और कैसे? पूरी करूं जरूरतें,
अब, उम्र भी कुछ ज्यादा हो गई;
मगर ! आंखों में है ,बहुत सारा प्यार !
पर किसे जताऊं? कैसे जताऊं? और क्यों जताऊं!
जब कोई इन आंखों में झांकता ही नहीं है।
——मोहन सिंह मानुष