बुढ़ापे का अकेलापन।

   ” बुढ़ापे का अकेलापन ”

बहुत ही मुसीबतों के दौर से गुजरा है,ये जीवन
पर किसे समझाऊं ? कैसे समझाऊं? और क्यो समझाऊं! जब कोई समझता ही नहीं है।

अपनों के दुख से; दर्द होता है ,बेहद
पर किसे बताऊं ? कैसे बताऊं? और क्यों बताऊं!
जब कोई साथ में, बतलाता ही नहीं है।

स्वार्थ की भुजाएं ,अब बहुत लम्बी हो गई,
और कैसे? पूरी करूं जरूरतें,
अब, उम्र भी कुछ ज्यादा  हो गई;
मगर ! आंखों में है ,बहुत सारा प्यार !
पर किसे जताऊं? कैसे जताऊं? और क्यों जताऊं!
जब कोई इन आंखों में झांकता ही नहीं है।

             ——मोहन सिंह मानुष

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Responses

  1. उपरोक्त पंक्तियों में यथार्थ सामने आया है, बुढ़ापे में तिरस्कार का शिकार हो रहे लोगों की संवेदना प्रस्फुटित हुई है, सरल शब्दावली में सच सामने आया है, बहुत खूब

  2. बुढ़ापे का अकेलापन आपने इस विषय पर लिखकर अपने साहित्य सृजन की क्षमता को उजागर किया है और बुढ़ापे में हो रही परेशानियों को अपनी कविता में पिरो कर सबके समक्ष प्रस्तुत करने की उम्दा कोशिश की है

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