बेटी
जिंदगी मशरूफ है दर्द देने में,
बेटी मजबूर हैं दर्द सहने में।
तड़पी वह बेचारी पिता का प्यार पाने के लिए,
था मगर दिल पत्थर एक पिता का उसके लिए।
छीन गया बचपन जिसका, घर को संभालते हुए,
कर दिया पराया अपनो ने, खुद को गैर समझते हुए।
कर शादी गई वह अपने ससुराल,
हो गया उसका वहाँ भी बेहाल।
हर जिम्मेदारियों को बस निभाती चली गई,
खुद को अपने आप से दूर करती चली गई।
उम्र जाया कर दी उसने अपनो के लिए,
तोड़ दिया नाता खुदसे, उसने अपनो के लिए,
अब ठान लिया मन में कि है जीना अब खुद के लिए,
फिर याद आया कि लूटा दिया है सब कुछ अपनो के लिए।
ढूंढ़ती रही वो अपने अस्तित्व को,
मिला न कोई सुराग अपनी पहचान को।
खुद की आपबीती देना चाहती है वो सीख,
की रखना भरोसा खुद पर, छोड़कर दूसरो से उम्मीद।
नही है कोई अपना इस दुनिया में,
बस अच्छा बनना खुदकी निगाहों में।
जि लेना जिंदगी अपनी खुदगर्ज़ी में,
वरना जिंदगी तो मसरूफ है दर्द देने में,
और बेटी बनेगी मजबूर दर्द सहने में!!!!
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