बोच बसंत

गुमनामी में गुजर गयी जिंदगी
फिर भी न शिकायत कभी की
जिनके लिए जी तोड़ मेहनत की
उनकी बेरुखी ही हरदम सही
फिर भी उदासी न चेहरे पे दिखी

हंस मुस्करा कर सबसे कुछ कहना
आदत थी जिनकी हिल मिलकर रहना
बच्चों को आदर दे बड़प्पन का भरना
अचरज है ऐसे पुरुष कैसे बेकार हो जाते हैं
गुमनामी का शिकार हो क्यों विदा हो जाते हैं

समाज में कुछ लोग जोंक से होते हैं
मेहनत करा खाते मजदूरी कम देते हैं
काम से मतलब सेहत से न पर की
उनके जहर को श्रमी आशीर्वाद समझ लेते हैं
अनमोल तन जो दिये ईश्वर ने उनको
चंद शिक्कों के खातिर बुरी आदत धर लेते हैं

इक ‘बोच’ बसंत का ऐसा अंत
अपने क्या गैर को भी नहीं पसंद
सीमा के आगे हर इंसान अक्षम
चाहकर भी न काम आया कोई संत
निष्ठुर दुनियां प्यार दिखाती अनंत

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