जी रहे हैं स्वयं हम
दिवास्वप्न में,
खुद को भूले हुए हैं
बड़े मग्न हैं।
पीठ संसार के दर्द
से फेरकर,
आँख सबसे चुराकर
बड़े मग्न हैं।
ओढ़ कर तीन कम्बल
पसीना हुआ,
उस तरफ वो निराश्रित
पड़े नग्न हैं।
भाव जगते नहीं क्यों
मदद के कभी
अश्व मन के
किधर आज संलग्न हैं।
पास में है सभी कुछ
नहीं तृप्ति है,
गांठ मन में हैं
भीतर से उद्दिग्न हैं।
तब भी सोये हुए हैं
दिवास्वप्न में,
यूँ ही पल पल गंवाते
दिवास्वप्न में।