भुख

दोपहर के समय
चिलचिलाती धूप में

चिथडे पहने नंगे पाँव घुमती
नन्ही सी जान भुख से बिलखती

पेट की आग के लिए
कई दुख सहकर भी

कई कई दिन भुखी रहती है

इस उम्र में वो
जिंदगी से मिल चुकी है

भुख के साथ
पुरी तरह हिल चुकी है

विवश है अपना भविष्य
तिमिरमय बनाने को

वह आदी हो चुकी है
इस तरह जिंदगी बिताने को

उसे भी है हसरत
खेलने की पढने की

पर उसे दी गई है शिक्षा
जिंदगी से लड़ने की

वह लड रही है
और अविरल लडती रहेगी

न लड़ाई खत्म होगी
न भुख खत्म होगी

एक दिन वह स्वयं ही
खत्म हो जायेगी

लडते हुए जिंदगी से
चिरनिंद्रा में सो जायेगी

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