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मझधार

हमें बस जीवंत बोध की दरकार है
नहीं मुझे खुद पर, हाँ तुझपर एतवार है
हम सजग प्राणी भले हैं
पर स्वार्थ से सना अपना प्यार है ।
स्वार्थ से रचा-बसा राब्ता
यह बस नाम है अनुराग का
राफ्ता-राफ्ता उधङती गयी धज्जियां
अवशेष खुद का अहंकार है ।
तादम्यता का दामन थाम के
समझौते के बल पर जो बसा
स्नेह का नामो-निशान नहीं
डर-डर के रहे फिर भी टकरार है ।
हर क़दम को फूक -फूक कर रखा
बढने से पहले खुद से कहा
कबतक यूँ सहते रहोगे
ले डूबा वही समझा जिसे
मझधार है ।

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