‘मैं खुद को ना पहचान सकी,
ऐसी दुनियाँ में धकेल दिया..
उसमें नफरत भी बेहद थी,
तेज़ाब जो तुमने उड़ेल दिया..
तुमने जो छीनी है मुझसे,
मेरी पहचान वो थी लेकिन,
मेरे भीतर जो सरलता थी,
तुमसे अंजान वो थी लेकिन..
अब क्या हासिल हो जाएगा,
नफरत का खेल था खेल दिया..
मैं खुद को ना पहचान सकी,
ऐसी दुनियाँ में धकेल दिया..
इक छाला भी हो जाए तो,
कितना दुखता है सोचा है?
वो आँसू भी तकलीफों का,
कैसे रुकता है सोचा है ?
वो क्या मुझको खुश रख पाता,
जिसने तकलीफ से मेल दिया..
मैं खुद को ना पहचान सकी,
ऐसी दुनियाँ में धकेल दिया..
तुम क्या जानो कि जिस्मों की,
जब परतें जलती जाती हैं..
किस दर्द,जलन की तकलीफ़ें
सब रौंदके चलती जाती हैं..
वो कैसा जलता लावा था,
जो तुमने मुझपे उड़ेल दिया..
मैं खुद को ना पहचान सकी,
ऐसी दुनियाँ में धकेल दिया..’
#एसिडअटैक
– प्रयाग