मैं खुद को ना पहचान सकी..
‘मैं खुद को ना पहचान सकी,
ऐसी दुनियाँ में धकेल दिया..
उसमें नफरत भी बेहद थी,
तेज़ाब जो तुमने उड़ेल दिया..
तुमने जो छीनी है मुझसे,
मेरी पहचान वो थी लेकिन,
मेरे भीतर जो सरलता थी,
तुमसे अंजान वो थी लेकिन..
अब क्या हासिल हो जाएगा,
नफरत का खेल था खेल दिया..
मैं खुद को ना पहचान सकी,
ऐसी दुनियाँ में धकेल दिया..
इक छाला भी हो जाए तो,
कितना दुखता है सोचा है?
वो आँसू भी तकलीफों का,
कैसे रुकता है सोचा है ?
वो क्या मुझको खुश रख पाता,
जिसने तकलीफ से मेल दिया..
मैं खुद को ना पहचान सकी,
ऐसी दुनियाँ में धकेल दिया..
तुम क्या जानो कि जिस्मों की,
जब परतें जलती जाती हैं..
किस दर्द,जलन की तकलीफ़ें
सब रौंदके चलती जाती हैं..
वो कैसा जलता लावा था,
जो तुमने मुझपे उड़ेल दिया..
मैं खुद को ना पहचान सकी,
ऐसी दुनियाँ में धकेल दिया..’
#एसिडअटैक
– प्रयाग
बहुत सुन्दर
बहुत आभार आपका
बहुत ही मार्मिक एवं भावपूर्ण प्रस्तुति
वास्तव में यह एक अमानवीय तथा दरिंदगी भरा कार्य होता है
मेरे ख्याल से तेजाब फेंकने वाला व्यक्ति शैतान से भी बढ़कर है फिर ऐसे शैतान के मन में प्रेम भावना कैसे हो सकती है
जी बिल्कुल ठीक कहा आपने..हौसला बढ़ाने के लिए आपका शुक्रिया
🙏
क्या बात है
उत्तम
बहुत बहुत बल्कि और भी अतिरिक्त आभार आपका ☺️☺️
बेहतरीन
क्योकिं मार्मिक रचना है
Emotional
बहुत शुक्रिया आपका
उफ्फ, तेजाब से पीड़ित बहनों का दर्द कागज़ पर उड़ेल दिया है आपने।
सच में वो इंसान नहीं दरिंदा होगा,
जिसने ये अमानवीय कृत्य किया होगा।
एक इंसान के लिए तो ऐसा सोचना भी गुनाह ही है।
बहुत दिन से सोच रहा था ऐसा कुछ लिखने का लेकिन ये काम मैं पूरा वक्त लेकर ही करना चाहता था यूँ समझ लीजिए आज वो वक्त मिल गया
तेज़ाब पीड़ित बहनों के लिए सच में बहुत बुरा लगता है😭आपकी कलम ने उनके दर्द को महसूस किया है।
आपकी कलम को सलाम🙏
रोए कैसे होंठ भी तो खुद जल रहे हैं,
आंसू आए कैसे आंसू खुद सूख रहे हैं|
यह दर्द बयां नहीं मैं कर सकता,
जिस पर बीता वह भी कुछ ना कह सकता|
आपकी बहुत सुंदर रचना
सुन्दर अभिव्यक्ति
अतिसुंदर रचना