वनवास की असहज यात्रा पर आर्यन ( गीत )
अब आर्यपुत्र आर्यन सिंह का हृदय सांसारिक वस्तुओं से हटकर बैराग्य की तरफ आकर्षित होने लगा
सो उन्होने विशुद्ध सरल भावनाओं को लेखनी के माध्यम से हम तक पहुंचाया –
शून्य मार्ग पर चला पथिक बन वेश बनाकर वनबासी
जीवन का उद्देश्य निभाने चला अकेला सन्यासी ।।
कर्मयोग से बिमुख रहा हूं तबसे ठोकर खाता रहा
जहां भी गया मिली नाकामी हर कोई ठुकराता रहा
शायद मैं अनजान रहा ये मंजिल किसकी अभिलाषी
जीवन का उद्देश्य निभाने चला अकेला सन्यासी ।।
भटक भटक कर अटक गया जब कहीं किनारा मिला नही
डूब रहा मंझधार मध्य पर कहीं सहारा मिला नही
बस पत्थर सा दीप्तिमान ये लगता था मथुरा काशी
जीवन का उद्देश्य निभाने चला अकेला सन्यासी ।।
हारा थका मुसाफिर मन से तन भी सारा थकित हुआ
फिर जब किया एकान्त मनन तो हृदय हमारा चकित हुआ
जान गया मेरी शुद्ध आत्मा परम तत्व की है प्यासी
जीवन का उद्देश्य निभाने चला अकेला सन्यासी ।।
जहाँ शान्ति सौंदर्य ब्रह्म का उसी ओर चल पड़ा हूं मैं
कर्मयोग परब्रह्म खोज मे तपोमार्ग पर खड़ा हूं मैं
सुत ‘आर्यन’ को शरण मे लो प्रभु हे गुरूजन हे घटवासी
जीवन का उद्देश्य निभाने चला अकेला सन्यासी ।।
जहाँ मिलेगा अगम मार्ग सब कार्य सहज हो जाएगा
फिर क्या सहज रहे जग मे जब जगतपिता को पाएगा
यही धर्म है यही कर्म है यही क्षेत्र है सुखरासी
जीवन का उद्देश्य निभाने चला अकेला सन्यासी ।।
भागवत कथावाचक व लेखक आर्यपुत्र आर्यन जी की पुस्तक से उद्घृत।
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