संवेदनाएं कहाँ रहती हैं आज-कल,
मैं यह जानती नहीं..
लोग क्यों जलाते हैं नफरत
के चिराग
मैं यह जानती नहीं..
ऊब चुकी हूँ जिन्दगी
से अपनी,
साँसों की डोर कब
टूटेगी
मैं यह जानती नहीं…
संवेदनशील मुद्दों पर
लोग मौन धारण कर लेते हैं
करते हैं क्यों ऐसा
मैं यह भी जानती नहीं..
मरती है मानवता जब
निहत्थे होकर सड़कों पर
चुप हो जाते हैं क्यों सब
यह भी जानती नहीं…
टूट जाती हैं जब संवेदनाओं की माला
क्यों बिखर जाती है मानवता
मैं यह जानती नहीं…