समय अब भी है

हो रहा विमुख-सा मन,
न इच्छा बची ना चाह।
यह उम्र का पड़ाव,
सच में इरादों को छीन-हीन,
कर ही देता है।
वह पहले सा उत्साह,
मर ही जाता है।
वो रंग-बिरंगे सपने,
धुंधले पर ही जाते हैं।
क्या यह सच है ?
क्या मैं मान लूं !
यह बातें सही है।
कुछ नहीं किया जा सकता!
मनुष्य जीवन,
हर पल कुछ सीखता है।
बचपन से बुढ़ापे तक का,
सफर यूं ही नहीं कट जाता।
मैं क्यों मान लूं !
यह सब रुक-सा गया है।
क्या इच्छा चाह सिर्फ,
ऊर्जा से पूर्ण लोगों के लिए है!
नहीं मैं नहीं मान सकती।
मैं विरक्त नहीं जीवन से,
न जीवन की अंतिम घड़ी है।
मैं सीख सकती हूं,
अभी समय है,
समय से जीत सकती हूं,
फिर से…
बस एक नए ढंग से….।

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