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साँझ

धीरे-धीरे चुपके चुपके
पड़ रही है साँझ
हम भीतर ही थे
पता ही नहीं चला कि
कब आई दबे पांव साँझ।
अभी तो उजाला था,
चहक रही थी चिड़ियाएं,
दिख रही थी
चारों ओर के पहाड़ों की छटाएं।
अब झुरमुट अंधेरा छा रहा है,
शहर शांत हो रहा है।
बिलों में छुपे चूहों का
सवेरा आ रहा है।
दिन भर किसी का समय था
अब रात किसी का समय आ रहा है।
बता रहा है कि
सभी का समय आता है
दिनचरों का भी रात्रिचरों का भी
बस समझने की बात यही है कि
समय का सदुपयोग
कौन कर पाता है

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