स्वार्थ
खुद से दूर हर गम्माज किए देती हूं ,
जिंदगी जेल है अल्फाज दिए देती हूं ,
यहां बेजुर्म हो गुज़ारा कौन कर सकता ,
जीना खुद के लिए आगाज किए देती हूं l
चलो तुमसे भी मैं इक बात बोल देती हूं ,
जखम अपने तुम्हारे साथ छोल देती हूं ,
खफा होना वफा का हश्र हुआ करता है ,
फिदा हूं खुद में ही ये राज खोल देती हूं l
गैरों से इश्क में ही लोग जिया करते हैं ,
आए दिन इश्क की तारीफ किया करते हैं ,
उन्हे मासूमियत का हश्र भी बताए कौन ,
अपनी तबाही का जो अंज़ाम पिया करते हैं l
– स्वाती शुक्ला
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