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हे भारत ! भारत बनो।

अपनी जो आज़ादी थी,

मानो

सदियों के सर्द पर,

इक नज़र धुप ने ताकी थी।

‘पर’ से तंत्र, ‘स्व’ ने पायी थी,

पर ‘संकीर्ण-स्व’ से आजादी बाकी थी।

अफ़सोस…! ये हो न सका,

और अफ़सोस भी सीमित रहा।

आज इंसानियत की असभ्य करवट से आहत,

तिरंगे की सिलवटी-सिसक साफ़ है;

बस अब तो भारत चाहता है,

हल्स्वरूप

हर खेत में हल ईमान से उठ जाए।

हे भारत! तीन रंगों का एहसास करो,

फिर शायद तुम समझोगे,

इस बीमार इंसानियत की औषधि सभ्यता है,

सभ्य होना ही तो भारत की सफलता है।

सभ्यता के सानिध्य में,

पुनः ‘जगत-गुरु’ की उपाधि धरो,

हे भारत! भारत बनो।

हे भारत ! भारत बनो।

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