“दोस्त”

जर्रा को आफ़ताब बना दे वो नज़र मेरे दोस्त की हैं_

मैं इतनी क़ाबिल तो नहीं की इंसा के लिबास में फरिश्ता नज़र आऊं_

बना दे मुझे जो फरिश्ता वो नज़र मेरे दोस्त की हैं_

खँजर चले इस दिल पर हज़ारों मगर मुदावा ज़ख्मों का करती वो नज़र मेरे दोस्त की हैं__

मैं तेरा एहसान चूका सकूं ए दोस्त इतनी मुझमें क़ाबलियत तो नहीं_
क्यूंकि लहू का कतरा-कतरा मेरा तेरी मोहब्बत में डुबा हैं_
मुझे सुकूँ के आब्शार से भिगो देती हर शय तेरी
मुझे फिर भी जताती नहीं वो नज़र मेरे दोस्त की हैं_
-PRAGYA-

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