ठगिया

ठगिया
———
कहा था ना मैंने !
दूर चले जाना मुझसे,
फिर नहीं माने तुम!
दिन के उजाले और रातों के अंधेरों में
विचरण करते रहते हो
खाली- पीली यूं ही दिल में मेरे।

ईश्वरप्रदत्त बुद्धि के स्वामी हो,
बुद्ध के समान शांत चित्त!
फिर दूर खड़े
तमाशा क्यों देखते हो मेरी बेचैनी का?

तुम्हारी सकारात्मकता बेहद निराली है,
तुम्हारे चेहरे पर बसी मधुर मुस्कान
मुझ में से कुछ चुरा कर ले जाती हैं।
क्या बला हो तुम??
बेहद अजीब हो तुम!

तुम्हें डर नहीं लगता,
निराशा नहीं घेरती कभी!!
अभयता का
वरदान प्राप्त है क्या तुम्हे??
सौम्यता का मुखौटा ओढ़े हो,
पर हो नहीं??
इतना तो यकीन है मुझे।
हां ठगिया हो तुम,
पुरुष जो ठहरे।

निमिषा सिंघल

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