क्रोध स्वयं के लिए गरल है
सुन लेंगे भगवान
मगर तू सच का रखना ध्यान,
कि सच का मत करना अपमान।
झूठी झूठी माया जोड़ी,
हुआ बहुत धनवान।
अंत समय में सब मिट्टी है,
यह होता है भान।
निंदा, द्वेष बुराई का पथ
छोड़ सफल इंसान
पा सकता है अपनी मंजिल
प्रेम सुखों की खान।
निकले मुख से मंद बुराई
चाहे कितनी मंद,
मगर इधर से उधर से सच के
पड़ जाती है कान।
वाणी में संतुलन बना हो
नहीं रहे अभिमान,
क्रोध स्वयं के लिए गरल है
मत करना विषपान।
विष से अंग गलेंगे भीतर
बाहर फीकी शान,
तेरे भीतर क्रोध रोग है
सबको होगा भान।
वाचा में रख प्रेम मधुरिमा,
ब्राह्मी गाये गान,
सच्चे से हो संगति इस तन की
सच्चे का सम्मान।
क्रोध स्वयं के लिए गरल है
मत करना विषपान।
विष से अंग गलेंगे भीतर
बाहर फीकी शान,
___________ संपूर्ण कविता बहुत ही सुंदर संदेश लिए हुए है। यह सत्य है कि क्रोध विष के समान ही है, “वाचा में रख प्रेम मधुरिमा,” वाणी की मधुरता ही सबको प्रिय होती है, बहुत सुंदर संदेश देती हुई कवि सतीश जी की अति श्रेष्ठ रचना, उच्च स्तरीय लेखन