चुभन

June 15, 2018 in हिन्दी-उर्दू कविता

नज़रो में हो कंकड़ तो,
रानाई चुभती है..
भरी बज़्म में चस्पा
तन्हाई चुभती है..
जिस रिन्द को मयस्सर हो
बस कफ़स की फर्श..
उसकी आँखों मे आसमान की
ऊंचाई चुभती है..
जो जिस्म सतह पे खेल के,
हार गए खुद से..
उन्हें रूह की
गहराई चुभती है..
जिन सफहो को है आदत,
पानी से लिखे हर्फ़ों की..
उन्हें ये रंगीन..
रोशनाई चुभती है..
तन्हा रहने की तलब..
इस कदर है सबको..
अब परछाई को भी परछाई
चुभती है।।

मैं जीना चाहती हूँ

September 12, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

मैं जीना चाहती हूँ..
बावजूद इसके..
कि व्यर्थ हो गयी मेरी चीखें..
खुद को बचाने की हर कोशिश..
हर प्रार्थना हर उम्मीद..
जीत गया दानवी पौरुष..
और हार गया मेरा शरीर..
मेरे शरीर का हर हिस्सा मरना चाहता है..
मेरी सांसो का ..नज़रों का ..
त्याग करना चाहता है..
फिर भी मैं जीना चाहती हूँ..
मुझे जीना है..
क्योंकि किसी के कुंठित शरीर और बीमार मन..
मेरे जीवन का अंत नही कर सकते..
हां मैं अभी बिखरी हूँ कतरा-2,
वो भयावह क्षण..
चीख रहे हैं अंतस में..
इन आवाजो को अनसुना कर..
चलना चाहती हूँ..
हां मैं जीना चाहती हूँ..
कितने ही सवाल,नज़रें..
हर दिन मुझे मारने की कोशिश करेंगे
मेरे कपड़ो, मेरे जीने के तरीके को..
ज़िम्मेदार बताएंगे,उनकी कुंठा का..
तो उठाओ सवाल ऐसे ही..
तुम्हारी ये सवाल इस सोच को सार्थक करेंगे,
की बलात्कारी बस वो नही..
जिसे तुम समाज कहते हो..
उसकी सोच भी है..
तुम्हारी इस सोच को ठोकर मार..
आगे बढ़ना चाहती हूँ
इक बार फिर से,जीना चाहती हूँ।

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