सच

September 26, 2019 in हिन्दी-उर्दू कविता

* सच *

अब तो
बाज़ारों में
बेचारी सच्चाई
सिसकियाँ भरती हैं
कोई भी
ख़रीददार नहीं उनका
जो भी आता है
बेईमानी , मक्कारी
ख़रीद कर ले जाता है
हां , कभी कभार
भूला भटका
कोई जिस्म
आ जाता है
‘ सच ‘ ख़रीदने
न तन पर
पूरे कपडे़
कमबख़्त पेट भी
पीठ से चिपकी हुई
फ़िर भी
ख़रीदने आ जाते हैं सच
चंद ऐसे ही
लोगों से
सच्चाई की झोपड़ी में
सब्र ओ सुक़ून की
अंगिठियां जलती हैं
तभी तो
वो आज भी
बापू ( गांधी ) के
इस देश में
ज़िंदा है… ! ! !
– कुन्दन श्रीवास्तव