मजबूर हुए मजदूर……..

June 10, 2020 in Poetry on Picture Contest

सपनो की दुनिया आँखों में लिए चले थे दूर,
पता नहीं था हो जायेंगे वो इतने मजबूर |

षडयंत्रो की चालो में जो बुरे फंसे मजदूर,
कहाँ पता था हो जायेगा वक़्त भी इतना क्रूर ||

टूट रहा हैं पत्थर दिल पर महामारी की आहत में,
शहर चले थे हालातों के परिवर्तन की चाहत में||

बंद पड़े हैं दफ्तर सारे नहीं जेब में पूंजी हैं,
खाली दिल की उम्मीदें ही सबसे वाजिब कुंजी हैं ||

खैर चल रही रेल किसी प्यासे को लगती पानी हैं,
पर पानी में साफ दिख रहा सियासी मनमानी हैं ||

कभी रेल मंजिल से पहले खुदा द्वार तक जाती हैं,
भूखो को गंतव्य बताकर वही छोड़कर आती हैं ||

कभी भटकती रेलगाड़ियाँ कहाँ कहाँ चल जाती हैं,
पांच दिनों के बाद वो वापस अपने मंजिल आती हैं

नम हैं आँखें लोगों की इन हालातों की सिड़की से,
धैर्यवान अपनों की राहें झाँक रहे हैं खिड़की से||

–रितिक यादव