अर्जुन की राह
अर्जुन की राह
मन मेरा शंकित हो कहता ,
अर्जुन मैं भी हो जाता , गर सारथी मेरा कृष्ण हो पाता ,
जीवन मेरा भी तर जाता , गर कृष्ण को मैं ढूंढ़ पता
चित् मेरा निस्संदेह कहता ,
घोड़़ों की लगाम कृष्ण को थमाना , तो एक बहाना था ,
असल में अर्जुन को , ख़ुद के मन को उसे थमाना था ,
पा कृष्ण के मन का साथ,अर्जुन चला विजय की राह ,
मन मेरे भी कृष्ण की चाह, यूई चला अर्जुन की राह
कहे कृष्ण मंद-मंद मुसकरा के, मन तेरा जब अर्जुन सा भटके ,
अंतर्मन से मुझे ध्याना , हर चाह तेरी मेरे मन सी होगी
स्दीवी तो मैं तुझमें बसता, तूने ख़ुद को बाहर भटकाया
तूने मेरी राह् है पकड़ी, अब तुझे कोई मोह ना जकड़े
ख़ुद को मेरे रंग में रंग कर, देख नाच उठा अंग अंग तेरा
हर संशय संदेह त्याग कर, मैंनें उसकी राह पकड़ ली,
सन्देह रहित चित् मेरे ने, उसको पाने की जिद ठान ली ,
अज्ञात में ख़ुद को डुबो, निकल गया मैं राह अनजानी ,
अंतर्ध्यान हो उसको धियाया, उतारा चित् ध्यान में पूरा ,
उस पूरे में पाया प्रभु पूरा ,तब रोम रोम हुआ कृष्ण में नूरा
…… यूई
A great message is there in our scriptures… Great poem
amazing poem!