कमाल
खुली जब आँख तो कमाल ये देखा,
वो मेरी रूह में था और मैं मकान में था,
सीखा ज़माने में बहुत कुछ
हमने यारों,
पर स्वाद मेरी जुबान में उसका ईमान से था,
यकीन इतना था मुझे उसपर के मैं उड़ान में था,
डुबो दी कश्ती जब उसने तब जाना मैं बस यूँही गुमान में था,
था खुद से जो “राही” अनजाना कभी,
पीछे मुड़ कर जो देखा तो लोगों की पहचान में था॥
राही (अंजाना)
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