काली छाया
काली छाया
ख़ुद को पाने की राह में, ध्यान लगा जो ख़ुद में खोया,
अन्तर मन में उतरा मैं जब, अंधकार में ख़ुद को पाया ,
अन्दर काली छाया देख के, ख़ुद को गर्त में डूबा पाया ,
खुद को राख का ढेर सा पाकर, मन मेरा अति गभराया .
पूछा छाया से मैंने गभरा कर
बाहर की छाया तो तन सह्लाए, क्यों तू मुझको जला सी जाएँ ?
बोली छाया
अंधकार में ख़ुद तूने जीवन बिताया ,अज्ञानता में में सब ज्ञान गवाया,
अन्तर तेरे प्रकाश का अभाव हो पाया, तब मुझको तू जन्म दे पाया .
क्या पाएगा मुझसे लड़ कर , लड़ के कोई मुझसे जीत ना पाया ,
मैंने अस्तितिव्हीन चित् है पाया, ना मुझको आग जलाए, ना शस्र कटवाए,
आत्म ज्ञान का प्रकाश जो जगाए , तो ही मुझसे तूं मुक्त हो पाए .
जान के छाया की माया, यूई इस से संघरश्रथ हो पाया,
बोध ध्यान में यह पाया, सीधे सी इक राह चुन पाया .
गहरा जितना ख़ुद में जाऊँ, उतना ही इसे दूर कर पाऊँ,
रोशन अपना अन्तर कर पाऊँ, फिर ही इसको दूर भगाऊँ .
मेरे ध्यान के बड़ते चित् में , अन्धेरे दूर भाग रहे हैं
सुबेह की किरणें चहक रही हैं, रात के साए सिमट रहे है .
उसके मेरे बीच में अब , बस पौह फटने की दूरी है
अपने निर्मल मन को लेकर, उसमें सिमटने की तैयारी है .
…… यूई
behatreen kavya rachna!
Good
उसके मेरे बीच में अब , बस पौह फटने की दूरी है
अपने निर्मल मन को लेकर, उसमें सिमटने की तैयारी है .
बहुत खूब