किसान की व्यथा

पसीना सूखता नहीं धूप में।
किसान होता नहीं सुख में।।

अतिवृष्टि हो या फिर अनावृष्टि।
प्रकृति की हो कैसी भी दृष्टि।
किसानों के परिश्रम के बिना,
कैसे पोषित हो पाएगी सृष्टि।
संसार का पोषण करने वाला,
क्यों रह जाता है भूख में।
पसीना सूखता नहीं धूप में।
किसान होता नहीं सुख में।।

इनके परिश्रम का मूल्यांकन, हमारी औकात नहीं।
ना मिल पाए उचित मूल्य, ऐसी भी कोई बात नहीं।
मौसम की मार और सर पर कर्ज का भार,
क्यों इनके हिस्से भी, खुशियों की सौगात नहीं।
आत्महत्या करने पर विवश,
कर्ज़ अदायगी की चूक में।
पसीना सूखता नहीं धूप में।
किसान होता नहीं सुख में।।

सरकारें तो बस आएंगी और जाएंगी।
किसानों को सही परितोष मिल पाएगी?
इनका भी परिवार है, जरूरतें हैं, सपने हैं,
अछूता वर्ग, मुख्यधारा से जुड़ पाएगी?
हमें सुख में रखने वाला,
क्यों रह जाता है दुख में।
पसीना सूखता नहीं धूप में।
किसान होता नहीं सुख में।।

देवेश साखरे ‘देव’

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