क्या-क्या छुपा रही थी
न जाने क्या-क्या छुपा रही थी,
गर्मी की सुबह, वो शाल ओढ़े जा रही थी,
धूल से पाँव सने थे,चंचल नयन बोझिल हुए थे,
भूख से पेट धँसे थे,चकित हो मैं देख रही थी,
मन ही मन ये पूछ रही थी,
क्या यह ठंड से बचने की जुगत है या,
तन ढकने को वो विवश है,
कैसा अपना ये सभ्य समाज है,
कोई नित्य नये परिधान बदलते,
कुछ लोग वहीं टुकड़ो में ही पलते।
न जाने क्या-क्या छुपा रही थी,
तन पर कितने गर्द पड़े थे,
उसको इसकी कहांँ फिकर थी,
मन की पर्तों से हो आहत,
जीवन से नित्य जूझ रही थी,
कमसिन वह अधेड़ हुई थी,
खुद से खुद को ठग रही थी ।
न जाने क्या-क्या छुपा रही थी,
अंँधियारे रातों के साये में,
दामन अपना ढूंढ़ रही थी,
दिन के उजियारे में ,
टुकड़ो से तन ढक रही थी,
ठौर कहांँ है कहाँ ठिकाना,
उसको इसकी कहाँ फिकर थी,
वो तो यूँ हीं चल रही थी,
न जाने क्या-क्या छुपा रही थी ।।
UMDA KAVYA-SRIJAN
बहुत शुक्रिया
वाह बहुत सुंदर
Good
Thanks