क्यूँ

कुछ बच्चे औपचारिक शिक्षा के लिये अपने को अयोग्य पाते हैं किन्तु उनके अभिभावक इस सत्य को अस्वीकार करते हैं और अनावश्यक दबाव में बच्चे असहज रहते हैं – ऐसे माता पिता के लिये एक बच्चे की करुण पुकार …

मॉं मैं सबसे अलग थलग
क्यूँ कक्षा में पड़ जाता हूँ ?
कई बार तो कान पकड़ कर
बाहर ही रह जाता हूँ !

माना कि वे बड़े चतुर हैं
हल सवाल कर लेते हैं
लेकिन जब सब रेस लगाते
मैं ही अव्वल आता हूँ !

नहीं मेरे कुछ पल्ले पड़ता
‘अंक गणित ‘या ‘बीज गणित’
न ही कोई विज्ञान समझता
‘जीव’ ‘रसायन’ या ‘भौतिक’!!

मॉं! क्या बिन यह सब सीखे
मैं बड़ा नहीं हो पाऊँगा ?
अपने दोनों पैरों पर क्या
खड़ा नहीं हो पाऊँगा ?

तुम मुझ पर विश्वास करो मॉं
कुछ कर के दिखला दूँगा
जैसे तुमने पाला मुझको
मैं भी तुम्हें सम्हालूंगा !!

शिक्षा मुझे बोझ लगती है
‘बड़ा’। मेरा अपराध है,
किन्तु हुनर कितने ऐसे हैं,
जिनसे प्रेम अगाध है!!

‘खेल’ खेलना एक कला है ,
गाना भी है सुख देता
है कितनी ही और कलायें
जो जाने तेरा बेटा !!

‘मॉं’ मैं तेरे सुख की ख़ातिर
चाहे कुछ कर सकता हूँ !
लेकिन दब कर कठिन बोझ से
कैसे अब जी सकता हूँ ?

जिसको जो कुछ भाता है माँ
यदि वह वैसा काम करे,
हो तनाव से मुक्त , बढ़े वह आगे
जग में नाम करे !!

तुम तो मुझे समझती हो माँ
क्या समझेगा कोई और?
यह शिक्षा का बोझ हटे तो
मैं भी पा लूँ अपना ठौर !!

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