गुस्ताखी माफ़ !

गुस्ताखी माफ़ !

बच्चों के प्रश्न भी अज़ीब होते हैं !
मगर ; सच्चाई के कितने क़रीब होते हैं !!
कल ही आधुनिक–भारत का सच पढ़ते हुए ,
प्रत्यक्ष – से , परोक्ष – रूप में लड़ते हुए ,
मेरे बेटे ने मुझे पूछा ——————-
‘‘ पापा ! कानून की आंखों पर पट्टी क्यों बंधी होती है ?
क्या, न्याय—-प्रक्रिया वास्तव में अंधी होती है ?? ’’

‘‘ हे, ईश्वर ! यह प्रश्न था या पहाड़ ?
सभी तो समान हैं —————
बिहार का बेऊर जेल हो…या दिल्ली का तिहाड़. ’’

मैं , ………………… निरूत्तर था,
बेटे का प्रश्न — स्वयं में उत्तर था.

उसकी जिज्ञासा जारी थी —- मेरे अनुभव पर भारी थी.

वह बोला -‘‘ शायद ! कानून ; धृतराष्ट्र की तरह जन्मजात् अंधा होगा
या फिर , भीष्म—पितामह-सा , संवैधानिक—- सत्ता से बंधा होगा
यदि लोग जान लेंगे कि , कानून : वास्तव में अंधा है ,
: अंधाधुन्ध फैसले इसीलिए करता है
तो, उनका विष्वास उठ जायेगा………………
अदालत तक , न्याय पाने , कौन जायेगा ? ’’

‘‘ लोगों में यह भ्रम बना रहे कि , कानून अपना काम कर रहा है ……………
न्याय : केवल नज़ीर की बात नहीं , वातावरण—-सा चारों ओर बिखर रहा है
न्यायमूर्ति ! आंखों पर पट्टी बांधकर , सबूतों के आधार पर सच पहचानकर ,
उसी की तरफ फै़सला सुनाता है—‘तराजू का जो पलड़ा’ भारी कर दिया जाता है ’’
‘‘ तराजू : इसीलिए तो खाली झूलती है, पापा !
कि, जो चाहे ——— अपनी ओर झुका ले. ’’

मैं, इस नये दृष्टिकोण से हैरान था,
बाल-सुलभ अंदाज़ से परेशान था
उसे कैसे समझाता —- ‘‘ हे, आज़ाद भारत के निष्कलंक आईने !
तू कब बूझेगा , प्रतीकों के माईने ? ’’

– ‘‘ कानून की आंखों पर बंधी पट्टी , भेदभाव–रागरंजिश से परे होती है
प्रेमचंद का ‘पंच—परमेश्वर ’, ‘ अलगू ’ हो या ‘ जुम्मन ’ ,
खाला—-सी—-जनता , न्याय पर भरोसा धरे होती है

—— ‘‘ बेटे ! यह तुम्हारा नहीं, पीढ़ी का दोष है
मुझे पता है, तू ! पूर्णतः निर्दोष है. ’’

—‘‘मीडिया के मार्फत अपराध का महिमामंडन् ,
व्यवस्था का हृास———–मूल्यों का विखंडन् ,
इसी तरह का सामाजिक ढांचा तैयार करता है
कि , आदमी ! अपनी परछाई से भी डरता है . ’’

———‘‘ न्यायाधीश भी इन्सान् होता है , ‘ उसका भी ईमान होता है’ !
समाज़ : समय का आईना होता है , समय : सत्य को सूत्र में पिरोता है. ’’
——‘‘ तू ! आस्था का चिराग जलाये रखना , ताउम्र सच की राह पे चलना
प्राकृतिक-न्याय सदैव निष्पक्ष होता है, सत्य : सुगंध की तरह प्रत्यक्ष होता है”

क्योंकि, झूठ के पाँव नहीं होते !
परछाईयों के गाँव नहीं होते !!

: अनुपम त्रिपाठी

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