पत्थर भी बन जाए पारस
किसी बस
या फिर रेलगाड़ी का
अकेला सफ़र
और किसी ऊँची पहाड़ी का
चुपचाप स्वर
मेरी जगी हुई रातों का
मज़ेदार भंवर
और अभावों की जिंदगी में
मेरा मददगार सब्र
कहतें हैं मुझसे
सब मिलकर
कि तू
खुद में जा बखूबी सँवर
सुनता भी हूँ
इन सबकी
और इन्हीं के दौरान
करता हूँ
कोशिश भी
कईं बार
खुद को
कहता हूँ
खुद भी
कि सँवार के खुद को
तू बन जा
ऐसे हुनर वाला
कोई मानस
कि पत्थर भी
तेरे करीब आने से
बन जाए पारस।
– कुमार बन्टी
nice
THNX
Very nice thought
THNX A LOT
वाह बहुत सुंदर
Nice