बोल ; मेरी मछली !
जब अंधे;आपस में मिल बैठकर ,
: संध्या बांचते हैं
कुत्ते : पत्तल चाटते हैं………..
यही तो है ; हमारी व्यवस्था !
कि; अंतिम पंक्ति का अंतिम व्यक्ति
डरा–सहमा जड रह जाता है
उसे धकिया कर ; हर बार
एक नया पात्र सामने आता है .
गुलाम मानसिकता ———-
नपुंसक व्यवस्था के सम्मुख
दोहरी हो के दण्डवत होती है
कतार स्तब्ध है ; याचकों की
———————–सहमी है
: खाई और चौडी होती है.
व्यवस्था : हमेंशा जूते में दाल बांटती है
नेतृत्व की ‘ चरणदास ‘ पीढ़ी छांटती है.
आजादी के रथ को ———-
मौकापरस्त कुत्ते हांक रहे हैं
थके घोडे : अस्तबलों में
——————– हांफ रहे हैं.
और ; हम है कि ! सपनों के भारत की
लोकतंत्र से संवैधानिक दूरी नाप रहे हैं. ……………………
” वे “, दांत और दुम के
सामूहिक प्रयोग में पारंगत हैं
: कुत्ते हैं ;
“हम”;अधिकारों से अनभिज्ञ
अपने–आप से हत् हैं
: अंधे हैं.
तभी तो कहा गया है ; कि, —
जब अंधे मिल—बैठ कर
संध्या बांचते हैं
: कुत्ते पत्तल चाटते हैं ……
……कुत्ते ही पत्तल चाटते हैं .
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Good
वाह
Nice