“ सच का साक्षात्कार “
कल अनायास मिला राह में
दीन – हीन ; कातर
याचक—सा खड़ा : सच
उसने आवाज़ लगाई —
“ मुझे रास्ता बताओ ….. भाई ! “
सच एक सुगंध की तरह फैलता है : ज़ेहन में
और ; मसल देते हैं …….. लोग
भावनाओं को ————– जुगनुओं की तरह
— “ जाने कब से भटक रहा ; बेचारा !”
मैंने सोचा , ……… साथ ले आया
लोग कतराने लगे ………………
मुझसे परे जाने लगे ……………
क्योंकि ; अब लटका रहता हरदम
: सच मेरे काँधों पर
शब्द : आँखों की शालीनता और
भावों का माधुर्य बाँटने के बावजूद
: अश्लील क़रार दिए गये……….
मैं ; परिचितों से होता गया दू…र और दू……र
ज्यों—ज्यों बनता गया : सच …… मेरा अंतरंग
यक़ीन कीजिए ; कई बार सोचा ————————–
“ कहीं दू….र छोड़ आऊँ —— मुसीबत से छुटकारा पाऊँ “
लेकिन ; नैतिकता का तक़ाज़ा ………………….
..“ जाने कितना भटका होगा ; ……… बेचारा ! “
: सच ; मेरे साथ ही रहा ………….
“ वह “ आत्म-ग्लानि में डूबा …… एकाकी—उदासीन
“ मैं “ ; डरा—सहमा ………..उपेक्षित—–आत्म—लीन
धीरे—धीरे बौखलाने लगा : सच !
सच ! बात…बे-बात झल्लाने लगा
अपनी उपस्थिति जानकर ; छद्म—परिवेश पहचानकर
कड़वाहट घुल गई , सच की जुबान में
उभरने लगी हताशा ————- आँखों के तरल पर
“उसने” ; बाहर निकलना बंद कर दिया
घोंघे—सा दुबका रहता,“चुप के मकान में“
लोग आते ——– झाँकते मेरे कमरे में
सच की उपस्थिति महसूस कर
: नि:शब्द लौट जाते
—– कहीं कोई अवसाद नहीं………………
सच ……………. बैचेन रहने लगा
अपने—आप से अनमना ; एक दिन बोला —-
“ मुझे उन्हीं बीहड़ों में छोड़ आओ : भाई ! “
“ ये ; फ़रेब की दुनियाँ , कतई रास नहीं आई !!”
—– “ मर चुकीं हैं ……….. मानवीय संवेदनायेँ
परस्पर ; मात्र औपचारिकता का नाता है ………..
यहाँ तो ; साया भी मुँह चुराता है……………………. “
आज भी ; असंख्य सच मँडराते हैं : हमारे आस—पास
मगर ; हम गुजर जाते हैं ; उनसे नजरें चुराकर : सप्रयास
सच !
बेहद हताश होकर जुटाते हैं
: थोड़ी—सी नींद
और “दे…….र—– सुबह” तक सोते हैं——-
यक़ीन कीजिए ; ——————–
सच ! ………… सारी रात रोते हैं———–
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अप्रतिम..क्या खूब लिखा है.
nice poem 🙂
इक सच है जो मैने कभी कहा नहीं
इक शख्स है जो कभी मुझमे रहा नहीं
सच यही है कि सच कभी मुझमे रहा नहीं
यही है सच कि कभी मैं जीया नहीं
sundar rachna!
simply lajwab……!!
nice one!…congrats 🙂
वाह बहुत सुंदर
बहुत खूब