सारा जीवन खो आया हूँ तब आया हूँ
सारा जीवन खो आया हूँ तब आया हूँ
पाप पुण्य सब ढो आया हूँ तब आया हूँ
तुम पावन हो देवतुल्य, मैं तुम्हें समर्पित
कलुष हृदय का धो आया हूँ तब आया हूँ
आहुति देकर छल छंदों की प्रेम हवन में
तपकर जलकर विरह वेदना प्रेम अगन में
चिंतन की वेदी पर करके अश्रु आचमन
सुनो बहुत मैं रो आया हूँ तब आया हूँ
देह के आकर्षण हैं झूठे, जान चुका हूँ
नहीं तारती सदा जाहन्वी मान चुका हूँ
त्याग चुका हूँ कामुकता के बंधन सारे
मलिन पंक मैं धो आया हूँ तब आया हूँ
नहीं तुम्हें विश्वास यधपि इन संवादों का
नहीं प्रायश्चित मेरे भी सब अपराधों का
हूँ अनाथ में, नहीं जगत में कोई मेरा
मात्र तुम्हारा हो आया हूँ तब आया हूँ
जाने कितने जन्मों से मैं भाग रहा हूँ
अपने मस्तक का मैं खुद ही दाग रहा हूँ
जीवित हूँ मैं जाने कितने अंतरद्वन्द लिए
साथ मृत्यु के सो आया हूँ तब आया हूँ
व्यथित हृदय में वर्षो का संत्रास लिए
छला गया हूँ नेह की झूठी आस लिए
अर्क नेत्रज देकर मन के मृतसम मरुथल में
प्रेम बीज फिर बो आया हूँ तब आया हूँ
सारे जग में मैं ही हूँ ये मान मुझे था
मेरे जैसा कोई नहीं अज्ञान मुझे था
तुमको पाकर मैंने सत को भी पाया है
अपना ‘मैं’ खो कर आया हूँ तब आया हूँ
कहो अभी भी क्या मुझको ना अपनाओगी
मैं हूँ पापी कहकर मन को समझाओगी
दिव्य प्रेम है अमर आत्मिक मुझको तुमसे
निष्कलंक मैं हो आया हूँ तब आया हूँ
अभिवृत अक्षांश
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Akhilesh Sharma - August 21, 2016, 12:18 am
अति सुन्दर
अभिवृत अक्षांश - August 21, 2016, 9:14 am
आपका हार्दिक आभार अखिलेश जी
Neelam Tyagi - August 21, 2016, 12:20 am
बहुत अच्छी कविता,
अभिवृत अक्षांश - August 21, 2016, 9:14 am
आपका हार्दिक आभार नीलम जी
Vipendra Pal Singh - August 21, 2016, 1:16 am
nice
अभिवृत अक्षांश - August 21, 2016, 9:14 am
आपका हार्दिक आभार विपेंद्र जी
Ritu Soni - September 14, 2016, 11:17 am
Very nice
राम नरेशपुरवाला - October 29, 2019, 8:20 am
Nice