स्वर्ण – चित्
स्वर्ण – चित्
एक तरंग , एक सुर , एक ल्य
है अब , सोच वचन और कर्म में मेरे
एक ल्य , एक सुर , एक तरंग
है अब , कर्म वचन और सोच में मेरे
इस तरंग सी ही है , वोह तरंग
इन सुरों से है मिलते , वोह सुर
इस ल्य से है जुड़ी , वोह ल्य
है जो बाहर का गीत, वोही अन्दर का संगीत ,
है जो बाहर का संगीत, वोही अन्दर का गीत
रोशन हुआ अंतर्मन जो तुझमें, मंज़िलें अपनी ख़ुद की छूटी ,
ल्य–म्य हो यूई रमा यूँ तुझमें, भव्सागर की चाह भी छूटी
…… यूई
nice poetry…manbhavan
Good