अमरकंठ से निकली रेवा
अमरकंठ से निकली रेवा
अमृत्व का वरदान लीए।
वादियां सब गूँज उठी और
वृक्ष खड़े प्रणाम कीए।
तवा,गंजाल,कुण्डी,चोरल और
मान,हटनी को साथ लीए।
अमरकंठ से निकली रेवा
अमृत्व का वरदान लीए।
कपिलधार से गिरकर आई
जीवों को जीवन दान दिए।
विंध्या की सूखी घाटी में
वन-उपवन सब तान दिए।
पक्षियों की ची ची चूं चूं
शेरों की दहाड़ लिए।
अमरकंठ से निकली रेवा
अमृत्व का वरदान लीए।
सात पहाड़ों से ग़ुज़रे ये
सतपुड़ा की शान है।
प्राकृतिक परिवेश की रानी
पचमढ़ी की जान है।
ओम्कारेश्वर में शिव शंकर
स्वयं खड़े प्रणाम कीए।
अमरकंठ से निकली रेवा
अमृत्व का वरदान लीए।
इस बस्ती में आकर
खुद को विकट विपदा में डाल दिया।
इंसानो के वेश में बेठे
शैतानो को पाल लिया।
यहां पग पग पर पाखंडी बैठे
कर्मकाण्ड के हथियार लिए।
अमरकंठ से निकली रेवा
अमृत्व का वरदान लीए।
पेहले तुझमे झांककर
लोग खुद को देख जाते थे।
मन,जुबां की प्यास बुझाने
तेरे दर पर आते थे।
आज तेरे किनारों से लौटा हूँ
मट-मैली मुस्कान लिए।
अमरकंठ से निकली रेवा
अमृत्व का वरदान लीए।
तू रोति भी होगी तो हम
देख ना पाते हैं।
तेरे आंसू तुझसे निकलकर
तुझमे ही मिल जाते हैं।
कड़वे कड़वे घूँट दर्द के
तूने घुट घुट कर ग्रहण कीए।
अमरकंठ से निकली रेवा
अमृत्व का वरदान लीए।
ढोंग ढोंग में सबने तुझपर माँ
का दर्जा तान दिया।
हाथ खड़े कर दे वो अबभी
जिसने रंचमात्र सम्मान दिया।
रूढ़िवादी बनकर तुझपर
नजाने कितने आघात कीए।
अमरकंठ से निकली रेवा
अमृत्व का वरदान लीए।
?विचार अत्यधिक आवश्यक?
nice
beautiful poem