“आँखें”
मन की बात खुदा ही जानें आँखें तो दिल की सुनती हैं,
जिनसे पल भर की दूरी रास नहीं उनसे ही निगाहें लड़ती हैं,
दिल भँवर बीच यूँ फँस जाता साँसें भी मुअस्सर ना होतीं,
आँखो आँखों के खेल में बस हर रोज सलाखें मिलती हैं,
बज्म-ए-गैर में जब जब दिल-आवेज़ नज़र कोई आता हैं,
बयान-ए-हूर में उनके येें आँखें ही कसीदें पढ़ती हैं,
रंज-ए-गम के अय्याम यूँ ही हँसते हँसते कट जाते हैं,
बिस्मिल की गफ़लत आँखें जब महफिल में नगमें बुनती हैं,
खाना-ए-गुल-ए-ना-शाद में गर कुछ भी उधारी रह जाता,
इक तार-ए-नज़र भर से ही ये आँखें तक़ाजे करती हैं,
bahut khoob ushesh bhai
thank u bhai
nice one
thank u
Super invmioatrfe writing; keep it up.
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thanks a lot
बहुत बढ़िया
Good
सुन्दर
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