आराईश अपने अंदर
आराईश अपने अंदर की तो हम अब खो चुके है
तलाश आलम की करते फिरते रहने को नासबूर है
परस्तिश बन्दे की हो या फिर ख़ुदा की हो
बस कुछ न कुछ मांगने का अजीब सा दस्तूर है
तिरा हर फैसला निकलता है सिर पे पत्थर की तरह
कोई मेरे हक़ में भी हो ,जिसे मैं भी कहूँ मंजूर है
या के इन परिंदो के आसमां में भी कोई पिंजरे न सजा दे
ताक के इनको उड़ता है कोई ,जो अपने पंख से मजबूर है
इस तस्सली के दरिया में कब तक रहे ‘अरमान’
मेरे हिस्से का भी बना कोई समुन्दर कहीं जरूर है
राजेश’अरमान’
bahut khoob arman ji
thanx