उस वक्त से
नजदीकियों का पता नहीं
दूरियां ऐसे लिपटी है मुझसे
रोना था फिर भी
कैसे सबर होता उस वक्त से ||
बीत जाता है वक्त
खर्च जाता है दर्द
कैसे कीमत लगाउ में
उधार है मेरा प्यार जिस दिल से
कैसे सबर होता उस वक्त से ||
मित ते नहि मिट ती
ये कैसी रिवायत है
चाँद को पल भर न देखा हो जिसने
ये कैसी आदत है
लौट कर सुकून आया ही कहां हैं
घडी भी ये कहती हैं प्यार से
कैसे सबर होता उस वक्त से ||
वफाई का कुछ अलग ही खेल है
वफ़ा भुल करती नहीं
बेवफा भुल मानती नहीं
ये कैसी उलजन है हुजूर
दूरियां भुल सेहती नहीं
सिमित था प्यार उस धड़कन में
आज दिल की उम्र देखी जाती है हर कदम से
कैसे सबर होता उस वक्त से ||
आज भी कुछ होता है
सच बोलु तो
धड़कने आज भी तेज होती है
सच बोलु तो
मुस्किल है
चोट पर चोट खाना
अब दर्द तो हमारे ज़हन में हैं
सच बोलु तो
वाकिफ हु में उस नजर से
कैसे सबर होता उस वक्त से ||
राहें पहचान गय हु में
कौन कहां ले जाएगी
प्यास लगी ही नहीं
फिर कैसे बुज जाएगी
अधूरी छूट गई थी में
फिर आज शाम कैसे पूरी हो जाएगी
दिन आज भी ढलता है उसी आराम से
कैसे सबर होता उस वक्त से ||
कविता के इस अंश के माध्यम से, कवि ने विभिन्न भावनाओं को सुंदरता से प्रकट किया है। यह कविता मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से जीवन के अज्ञात और दूर संबंधों को प्रस्तुत करती है। कवि की कविता व्यक्तिगत अनुभवों, आशाओं और दुख को आकार देती है और हमें सोचने पर विचार करती है कि कैसे हम अपने आप को बदल सकते हैं और कठिनाइयों का सामना कर सकते हैं। भावुकता, उम्मीद और विरह की भावना को सांस्कृतिक रूप से व्यक्त करने के लिए इस कविता ने सराहनीय कार्य किया है। रचनाकार ने विचारों को सुंदरता से व्यक्त किया है और शब्दों की एक ऐसी सजा बनाई है जो चित्रित हुए भावों को और भी गहराई देती है। इस कविता का अभिभावक मनोवैज्ञानिक तत्वों के साथ ज्ञान, अनुभव, और आत्म-विश्वास को बढ़ावा देने के लिए एक उत्कृष्ट उदाहरण के रूप में उपयोग कर सकते हैं।