और फिर…
और फिर आख़िर में, सब हुआ
इक़रार से, इज़हार तक
तकलीफ़ से, तवज्जो तक
रहीम से, मीरा तक;
…….
पिछले दिन कारनेस में से वो बक्सा निकाला,
मानो टूटें अल्फ़ाज़ों को काग़ज़ पर निकाला
नज़रें ढूँढने लगी,
मन महक सा गया
दिल चंपई-चंपई,
रेशमी सिंदूर में बहक सा गया;
सीटी की आवाज़,
और फिर बिखरे जज़्बात
मानो किसी ने
कढ़ाई में उलझे हाथ को थाम सा लिया!
वही ख़ुशबू , वही लिबास
पलके झुकीं, हुआ ऐहसास;
जैसे लिखती थी तुम, कलाई पे
या जब धरती थी अपना पाँव, आँगन में
वो लिखावट की ख़ूबसूरती न थी
न था वो तुम्हारे घुँघरू का जाल,
बस अक्स था, तुम्हारे होने का
और हक़, तुम्हें अपना कहने का
ख़ैर, मन फिर दौड़ा इस आस में
की शायद फिर मिलो ख़्वाब में
जैसे मिली सुखी ग़ज़ल, गुलाब में
शायद फिर मिलो क़ुरबत के ऐहसास में।
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