कंघी

कविता- कंघी
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कभी इसको
रख गोदी मे रोटी देती थी,

कभी इसको
काजल कंघी तेल कराती थी,

कभी इसको
कंधो पर रख कर,
मेले कि शैर कराती थी,

थक! जाता था, लाल मेरा जब,
रख सर पर गठरी गोदी मे लेके,
कभी अपने मैके जाया करती थी|

कभी इसको
झूठ दिलाशा दे करके,
खुद कामो मे लग जाती थी|

बड़ा हुआ जब लाल मेरा,
क्या क्या रंग दिखलाता है|

कभी भुखे पेट मै सोती हु
कभी कपड़ो के लिए रोती हु|

है ऐसा कोई साथ निभाये,
माँ से बढ़कर कोई प्रित दिखाये,
मत माँ को डायन कहना भाई,
माँ ही है जो हर दुख सहके,
किसी स्त्री का शौहर तो,
किसी बच्चे का बाप ,बनने खातिर
दूध दही भोजन संग पेड़ा खिलाये|

ऋषि कुमार “प्रभाकर ”

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