जो अब न रहा

ज़िक्र तिरी वफ़ा का मसला था , जो अब न रहा
मैं कब तिरी आँखों में बसा था, जो अब न रहा

इक बुतखाने की तिश्नगी से बढ़कर कुछ नहीं
कभी बुलंद जमाना मैं था ,जो अब न रह

मेरी आवाज़ह भला क्यों करता ये तेरा शहर
मैं इक मिसाल हुआ करता था ,जो अब न रहा

हवाओं के रहमोकरम पर जलता मैं कोई चराग हूँ
खौफ बुझने का अक्सर होता था, जो अब न रहा

नब्ज़ भी कुछ तेज थी ,फ़िज़ां भी थी कुछ बीमार
वो तेरे मौसम का इक ज़ख्म था ,जो अब न रहा

अपनी दीवानगी के अज़ाब कुछ कम करों ‘अरमान’
वो पहले का जमाना था दौर ,जो अब न रहा

राजेश’अरमान’

आवाज़ह= चर्चा, प्रसिद्धि
अज़ाब= पीड़ा, सन्ताप, दंड

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Responses

  1. नब्ज़ भी कुछ तेज थी ,फ़िज़ां भी थी कुछ बीमार
    वो तेरे मौसम का इक ज़ख्म था ,जो अब न रहा ………….. Subhan Allah

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