तुम आए नहीं
मैंने तुम्हारा इंतज़ार किया था
दिन के हर पहर ,
अनगिनत शामें
हर चमकती काली रात में
बरसते सावन के
हर फुहार ,पवन, हर बयार में
तुम बिन सुने पड़े आंगन के
दरवाजे कि हर दस्तक,हर आहट के अहसास में
तपती दुपहरी की
पीपल की छाँव में,
शोर में ,शांति में,
तुम बिन मेरे हर अधूरे किस्से के
एक खास हिस्से में,
तुमने कहा था ,तुम आओगे
कभी ना जाने के लिए
तुमने बेवफाई की
तुम आए नहीं ,
तिरंगे में लिपटे लाए गए
हाँ उस रोज़ मैंने जाना,कि”जाना हिन्दी कि सबसे खौफनाक क्रिया है।”
तुम बिन बताए चलें गए
और पीछे छोड़ गए अपने होने का अहसास
मैं अक्सर लिपट जाती हूँ ,तुम्हारे लिबास से आज भी
तुम्हारी खुशबू इससे आज भी आती है
हर रात यहीं मुझे थपकी देती है
मिन्नते करके जैसे सुलाती है,
और
मैं अब अक्सर सोती हूँ ,कभी ना जागने के लिए।
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