तृष्णा
ना मिट्टी से गढ़ी हूँ ,
ना तराशी हूँ पत्थर से,
इंसानियत का अंश हू
सींची गयी हूँ लहू से l
दो नयन है सपनों से लबालब ,
ढूढ़ रहे हैं उस मंज़िल को,
जहाँ मिल पाओगे तुम,
भरे हुये नीर डबाडब।
एक दिमाग जो जागता है हरपल,
हर आहट पर सतर्क रहता,
कहीं तुम्हारी आहट भी खो जाये ना उससे,
इस आस में जीवन डोर थामे बैठा ।
दो होंठ काँपते रहते हैं,
ले लेकर तुम्हारा ही नाम,
बुदबुदाते हुये यही कहते
आओ, अब तो मेरा हाथ लो थाम।
एक ह्रदय है धड़कता सा,
कुछ अहसास हैं,ज़िन्दा से,
आस का रक्त संचार है,
तुम्हे पुकारती धङकन है ।
रंगीन सी कुछ यादें हैं,
धुंधले से कुछ सपने हैं,
बंध होती नज़रें हैं,
मद्धिम पड़ती साँसे हैं ।
आ जाओ कि अब वक्त बहुत है कम,
आँखें मेरी पथराने लगी,हो होके नम,
मेरी दुनिया में अंधेरे से पहले तुम,
आखिरी बार रोशन कर दो ये मन।
आखिरी झलक दिखा जाओ,
तुम्हें समाकर इन नयनों में दो,
तुमको मुक्त मैं कर जाऊँ,
आओ इस इंसान की बस,इतनी सी तृष्णा मिटा जाओ।।
-मधुमिता
Very nice
bahut khoob!
वाह बहुत सुंदर