दुर्योधन कब मिट पाया:भाग-11

इस दीर्घ कविता के दसवें भाग में दुर्योधन  द्वारा श्रीकृष्ण को हरने का असफल प्रयास और उस असफल प्रयास के प्रतिउत्तर में श्रीकृष्ण वासुदेव द्वारा स्वयं के  विभूतियों के प्रदर्शन का वर्णन किया गया है।अर्जुन सरल था तो उसके प्रति कृष्ण मित्रवत व्यवहार रखते थे, वहीं कपटी दुर्योधन के लिए वो महा कुटिल थे। इस भाग में देखिए , युद्ध के अंत में भीम द्वारा जंघा तोड़ दिए जाने के बाद मरणासन्न अवस्था में दुर्योधन  हिंसक जानवरों के बीच पड़ा हुआ था। जानवर की वृत्ति रखने वाला योद्धा स्वयं को जानवरों के बीच असहाय महसूस कर रहा था । अधर्म का आचरण करने वाले व्यक्ति का अंजाम जैसा होना चाहिए , कुछ इसी तरह का अंजाम दुर्योधन का हुआ था। प्रस्तुत है दीर्घ कविता “दुर्योधन कब मिट पाया ” का  ग्यारहवां भाग।

छल प्रपंच  का अर्जन करके कपटी  दुर्योधन फलता,
तिनका तिनका अनल दबाकर सीने में जलता रहता।
धृतराष्ट्र  सुत  कलुसित मन लेकर जीता था जीवन में,
ज्यों नागों का राजा सीधा फन करके चलता हो वन में।

बाल्य काल में जो भ्राता  को विष का पान कराता था,
लाक्षा  गृह  में पांडव सब मर जाए जाल बिछाता था।
श्यामा  ने  तो  खेल खेल  में थोड़ा सा परिहास किया ,
ना  कोई  था  कपट  रचा ना वहमी  ने विश्वास किया।

वो  हास ना  समझ  सका  था  परिहास का ज्ञान नहीं ,
भाभी  के  परिहासों से चोटिल होता  अभिमान कहीं?
जो श्यामा के हंसने को समझा था अवसर अड़ने को ,
हँसना तो  मात्र बहाना था वो  था हीं तत्पर लड़ने को।

भला  खेल में   भी  कोई  क्या  घन  षड्यंत्र रचाता   है?
था खेल  युद्ध ना  आडम्बर   मिथ्या प्रपंच    चलाता है?
भरी सभा में पांचाली  का कर सकता जो   वस्त्र हरण,
आखिर वोहीं तो सोच सके कैसे हरि का हो तेजहरण।

चिंगारी  तो  लहक  रही थी बस एक तिनका काफी था ,
ना  सवाल  था संधि का  कोई ना सवाल था माफ़ी का।
जो जलता हो क्रोध अनल में आखिर जग को क्या देता?
वो  तो  काँटों  का  था  पौधा  यदु नंदन   को क्या  देता ?

भीष्म द्रोण  जब साथ खड़े थे उसको भय कैसे होता?
और मित्र  हो अंग राज  तब  जग में  क्षय कैसे  होता?
कोई  होता और  समक्ष   दुर्योधन  को  फलना हीं था,
पर  हरि  हो  जाएं विपक्ष  तब अहंकार हरना  हीं था।

भीष्म, द्रोण और कर्ण का रक्षण काम न कोई आया ,
छल के पासे  फेंक फेंक कर  शकुनी  तब पछताया ।
काम ना आई ममता माँ की कपट काम ना आता था ,
जब   भीम  ने छल  से  जंघा  तोड़ी    तब   गुर्राता   था।

आज वोही कपटी अभिमानी भू पे पड़ा हुआ था  ऐसे,
धुल धूसरित हो जाती हो  दूब  धरा पर  सड़ के जैसे।
अति भयावह दृश्य गजब था उस काले अंधियारे का,
ना कोई ज्योति गोचित ना परिचय था उजियारे का।

उल्लू  सारे  वृक्ष  पर बैठे  आस  लगाए  थे  भक्षण  को,
जिह्वा उनकी आग उगलती ना आता कोई रक्षण को।
निशा  अंधेरी  तिमिर  गहन और  कुत्ते घात लगाते थे,
गिद्ध  शृगाल  थे  प्रतिद्वंदी  सब लड़ते थे चिल्लाते  थे।

जो जीवन भर जंगल के पशुओं जैसा करता व्यवहार,
घात लगा कर शत्रु की गर्दन   पे रखता था   तलवार।
लोमड़  जैसी  आंखे  जिसकी और गिद्धों से थे आचार,
वो हीं दुर्योधन पड़ा हुआ था गिद्धों   के आगे  लाचार।

कविता के अगले भाग में देखिए , कैसे जंगली शिकारी पशु मानवोचित गुण के साथ बड़े धैर्य  से दुर्योधन की मृत्यु का इन्तेजार कर रहे थे और कैसे एक योद्धा के आगमन ने उन वन पशुओं के मंसूबों पर पानी फेर दिया ?

अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित

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