निरंतर
दुख के क्षणों में जो शख्श ऊबता नहीं
सुख के क्षणों में अपनो को भूलता नहीं
पुरुषों में है सदियों से ही अज्ञानता
गलत संगत से निज ज्ञान भी ढका
औरों की बात मन में नित भरते हैं
न चाहते भी कई गलतियां करते हैं
कुछ निर्भर करता बेटी की ईच्छा पर
मात पिता भी बच्चों को भूल पाता कब
रश्म तो सदियों से निरन्तर चलता आता
कंधा मजबूत पर ही भार डाला जाता
बहुत सुंदर रचना
अति सुंदर भाव
सुन्दर पंक्तियाँ
बहुत खूब